13 सितंबर को मणिपुर में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लगभग ख़त्म होने वाला था तब उन्होंने विस्थापित हुए लोगों का ज़िक्र किया.
उन्होंने कहा, "मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि विस्थापितों को जल्द-से-जल्द उचित स्थान पर बसाने के लिए, शांति की स्थापना के लिए भारत सरकार, यहां मणिपुर सरकार का ऐसे ही सहयोग करती रहेगी."
प्रधानमंत्री ने ये बात मणिपुर के चुराचांदपुर में कही जो राजधानी इम्फाल से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर बसा एक शहर है.
हालांकि, उन्होंने यह नहीं बताया कि 60 हज़ार से अधिक बेघर मैतेई और कुकी लोगों के लिए 'उचित स्थान' कौन-से होंगे.
मई 2023 में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच हुई जातीय हिंसा के शुरू होने के बाद से पीएम मोदी का राज्य का यह पहला दौरा था.
अप्रैल 2025 में गृह मंत्री अमित शाह ने बताया था कि इस जातीय संघर्ष में 260 लोगों की मौत हो चुकी है.
आगजनी में अपना घर गंवाने या हिंसा के डर से अपना घर छोड़कर निकले लोगों को राज्य भर में बनाए गए अस्थायी राहत शिविरों में रखा गया है.
फरवरी 2025 में, जब मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने इस्तीफ़ा दिया तब से मणिपुर की सत्ता सीधे केंद्र सरकार के हाथों में रही है. उसके पहले साल 2017 से राज्य में बीजेपी की सरकार रही है.
जुलाई 2025 में मणिपुर प्रशासन ने दिसंबर 2025 तक सभी बेघर लोगों को बसाकर राहत शिविरों को बंद करने की अपनी योजना की घोषणा की थी.
हमने ये जानने की कोशिश की है कि इस योजना के लागू होने में क़रीब तीन महीने का समय बचा है, ऐसे में ज़मीनी हक़ीकत क्या है, और लोग क्या सोच रहे हैं.
अपना नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर बात करते हुए, राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बीबीसी हिंदी को बताया कि अब तक सैकड़ों बेघर लोगों को शिविरों से पास के अस्थायी घरों में भेजा गया है.
उन्होंने बताया, "करीब 290 राहत शिविरों की संख्या अब घटकर लगभग 260 हो गई है."
लेकिन सवाल अब भी यह है कि क्या हिंसा के डर से अपना घर छोड़ने वाले लोग वापस लौटेंगे?
'वापस लौटना नहीं है'
अपने मणिपुर दौरे में प्रधानमंत्री ने चुराचांदपुर में जहां भाषण दिया वहां से कुछ सौ मीटर की दूरी पर एक राहत शिविर है.
वहाँ हमारी मुलाकात 22 साल की हतनु हाउकिप से हुई. वह बॉटनी की छात्रा हैं और सामाजिक संगठनों के साथ भी काम करती हैं.
हमने उनसे पूछा कि क्या वह फिर से इम्फाल घाटी में बसना चाहेंगी, जहां वह हिंसा से पहले पढ़ाई कर रही थीं?
वे बताती हैं, "असल में तो हमें अपने घर लौटना चाहिए, लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता. क्योंकि वो इलाक़े अब मैतेई इलाकों से घिरे हुए हैं. अगर हमें अलग प्रशासन मिले, तो हमारे नेता हमारे लिए कुछ ऐसा इंतज़ाम कर सकते हैं जो हमारे पुराने घरों से ज़्यादा सुरक्षित हो. मुझे लगता है कि वही बेहतर होगा."
जब हम 'बफ़र ज़ोन' से गुज़रेसुबह हम राजधानी इम्फाल से चुराचांदपुर की ओर निकले, सफ़र तब तक आराम से चल रहा था, जब तक हम चेकपोस्ट के नज़दीक नहीं पहुंचे थे. इन नाकों पर पुलिस, अर्धसैनिक बल और सेना के जवान तैनात थे.
ये सभी पोस्ट उन इलाकों में हैं जिन्हें अब 'बफ़र ज़ोन' कहा जाने लगा है, यानी ऐसा इलाक़ा जहाँ कोई नहीं रहता, न मैतेई और न ही कुकी.
यहां जले हुए घरों और दुकानों के अवशेष, टूटी इमारतें ही दिखती हैं. दरअसल, इन्हीं जगहों पर सुरक्षा बलों ने रहने और काम करने के लिए अपने अस्थायी ठिकाने भी बनाए हैं. हमें इस इलाके से आगे गुज़रने की अनुमति तभी मिली जब हमने अपने पहचान-पत्र दिखाए और अपने नाम दर्ज कराए.
मैंने वहां तैनात सुरक्षा कर्मियों से पूछा, "आप यहाँ क्या करने की कोशिश कर रहे हैं?"
इस पर एक जवान ने कहा, "हम यहाँ इसलिए हैं ताकि मैतेई और कुकी लोग एक-दूसरे के इलाकों में न जाएँ और आमने-सामने न आएँ."
"अपने घर को कैसे भूल सकता हूं?"
इरॉम अबुंग का जन्म चुराचांदपुर में हुआ था.
बेघर होने के बाद अबुंग 'बफ़र ज़ोन' के पास बिष्णुपुर में अपने समुदाय के लोगों के साथ एक राहत शिविर में रहते हैं.
अबुंग मैतेई हैं और संघर्ष शुरू होने से पहले तक कुकी बहुल इलाक़े चुराचांदपुर में रहकर कारोबार करते थे.
उन्होंने हमें बताया, "मैं चुराचांदपुर की खुशबू और माहौल कभी नहीं भूल सकता. मैंने वहाँ अपनी ज़मीन पर घर बनाया था. घर को नुकसान ज़रूर हुआ, लेकिन ज़मीन मेरी अब भी है और मैं उसे कभी नहीं बेचूँगा, क्योंकि मुझे पता है कि मैं वापस जाऊँगा. हमारे दोनों समुदायों के बीच की दूरी मिटाने की कोशिश होनी चाहिए, ताकि लोग फिर से अपनी ज़िंदगी में लौट सकें."
क्रोध और निराशाहमने मैतेई समुदाय के अन्य बेघर लोगों से भी मुलाकात की, उनमें से ज्यादातर लोग वापस लौटने की उम्मीद रखते थे.
कुछ लोग गुस्से से भरे थे, जैसे सलाम मोनिका.
उनके चाचा, 33 साल के अंगोन प्रेमकुमार मैतेई ने जुलाई 2024 में शिविर में आत्महत्या कर ली थी.
(आत्महत्या एक गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या है. अगर आप भी तनाव से गुज़र रहे हैं तो भारत सरकार की जीवन आस्था हेल्पलाइन 1800 233 3330 से मदद ले सकते हैं. आपको अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से भी बात करनी चाहिए.)

मोनिका बताती हैं कि उनके चाचा ने जीविका छिन जाने, खराब स्वास्थ्य और परिवार की देखभाल न कर पाने की वजह से परेशान होकर ऐसा फ़ैसला किया.
हालांकि सरकार का कहना है कि वे संघर्ष से प्रभावित लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के मामले में सहायता देती है, जिसमें आत्महत्या के जोखिम वाले लोगों की पहचान और मदद करना शामिल है.
मोनिका ने कहा, "मानसिक स्वास्थ्य सहायता के लिए कुछ लोग पहले आए थे, दो-तीन बार लेकिन इस साल तो कोई भी नहीं आया है."

भले ही दोनों पक्षों के लोगों की सोच अलग हो, लेकिन एक चीज़ जो उनके बीच समान है, वह है उनके दुख और संघर्ष की कहानियाँ.
चुराचांदपुर के राहत शिविर में हमारी नेमहोइचोंग ल्हुंगडिम से मुलाकात हुई. उन पर अपने दोनों बच्चों को अकेले बड़ा करने की ज़िम्मेदारी है.

उनमें से एक स्कूल जाता है, जबकि दूसरा अपनी आँख की समस्या की वजह से नहीं जा पाता. ग्यारह साल के खैथेंसई को अपने दोस्तों के साथ खेलते समय आंख में गंभीर चोट लग गई थी.
नेमहोइचोंग ने हमें बताया, "हम यहाँ एक प्राइवेट अस्पताल गए, लेकिन डॉक्टर ने कहा कि उसे राज्य के बाहर के विशेषज्ञ अस्पताल में ले जाना चाहिए. राज्य में बनी परिस्थितियों में यह करना मुश्किल है. उसके इलाज में लगभग तीन लाख रुपये भी लगेंगे. मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. वह अपनी बाईं आंख से कुछ नहीं देख सकता और दाईं आंख में भी दर्द रहता है. मुझे डर है कि जब वह बड़ा होगा, तो मुझसे नफरत करेगा कि मैं उसका इलाज नहीं करा सकी."
हालांकि, संसद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने दावा किया था कि वह मणिपुर के शिविरों में रहने वाले सभी बच्चों को चिकित्सा सहायता दे रही है.
नेमहोइचोंग ने कहा, "वे कभी-कभी शिविर आयोजित कर मुफ्त दवा बाँटते हैं, लेकिन वे मेरे बेटे का इलाज कभी नहीं करते. मैं सच में आशा करती हूँ कि कोई चमत्कार हो जाए और वह ठीक हो जाए."

शिविरों की हालत के बारे में बात करने के लिए बीबीसी ने इम्फाल में राज्य सचिवालय का दौरा किया और प्रतिक्रिया लेने के लिए राज्यपाल के कार्यालय से समय भी मांगा.
ईमेल के माध्यम से चुराचांदपुर और बिष्णुपुर के प्रशासनिक अधिकारियों से भी संपर्क किया, लेकिन अब तक किसी ने जवाब नहीं दिया.
एक बेहतर ज़िंदगी
हमने उन परिवारों से भी मुलाक़ात की जिन्हें हाल ही में स्कूल या कॉलेज के भवनों में बने शिविरों से हटाकर अस्थायी घरों में पहुँचाया गया है. इन घरों में रसोई, बाथरूम और बेडरूम हैं.
नौजवान साशा ने कहा, "यहाँ हमें बहुत आराम महसूस होता है. पहले जब हम पूरे शिविर के लिए सामुदायिक रसोई में खाना बनाते थे, अब हम अपने लिए खुद खाना बनाते हैं. यहाँ अधिक प्राइवेसी भी है."

कभी बंगलौर में काम कर चुके साशा से हमने पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि वे अपने पुराने घर, जो मैतेई बहुल इलाके के पास है, लौट पाएंगे?
साशा बताते हैं, "मुझे अब वह जगह पसंद नहीं है. भविष्य कैसा होगा, मैं नहीं कह सकता, लेकिन मैं वहाँ लौटने के बारे में सोचना भी पसंद नहीं करता."
अस्थायी घरों और राहत शिविरों में सरकार सभी को मुफ्त राशन और बिजली देती है. लेकिन कई लोगों ने हमें बताया कि उनके लिए आजीविका का सवाल अब भी बड़ा है.
बिष्णुपुर के कैम्प में हम चिंगखाम राधा और अन्य महिलाओं से मिले, जो एक समूह का हिस्सा थीं और जिन्होंने क्रोशे से गुड़िया बनाना सीखा था.
राधा ने कहा, "इससे मुझे कुछ पैसे कमाने में मदद मिलती है. यह करने से मुझे मानसिक शांति भी मिलती है."


इम्फाल या चुराचांदपुर के बाज़ारों में चलते हुए या हाईवे पर गाड़ी चलाते हुए हिंसा और विभाजन के स्पष्ट संकेत धीरे-धीरे कम दिख रहे हैं.
खुले बाजार, रेस्तरां और शहरों में लोगों की आवाजाही फ़िलहाल सामान्य और बिना रोक-टोक की लगती है.
प्रधानमंत्री के राज्य में आने के कुछ दिन बाद, 19 सितंबर को असम राइफल्स के जवानों पर हमला होने से पहले, अधिकारियों ने भी हिंसा में कमी की बात कही थी.

अगर अपना घर छोड़ने पर मजबूर हुए लोगों को उनके पुराने घर में वापस भेजने की जगह अब वे जहाँ हैं वहीं बसाया जाए तो क्या यह एक विकल्प हो सकता है?
इस सवाल के जवाब में आरके निमाई सिंह कहते हैं, "अगर आप दोनों समुदायों के बेघर लोगों को उनके ही समुदाय वाले इलाके में बसाएँगे, तो यह 'एथनिक क्लींजिंग' का समर्थन करने जैसी बात होगी. सामान्य स्थिति और शांति लाने के लिए, बेघर लोगों को उनके पुराने घरों में बसाना सबसे ज़रूरी है. यह कठिन है, लेकिन एक छोटा कदम उठाने के बाद, दस या पंद्रह साल में फिर से भरोसा बनेगा."
निमाई सिंह सेवानिवृत आइएएस अधिकारी हैं और मणिपुर के राज्यपाल के सचिव के रूप में काम कर चुके हैं.
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि बेघर लोगों के लिए लगभग सात हज़ार नए घर बनाए जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि सरकार उनकी मदद के लिए साढ़े तीन हज़ार करोड़ रुपये तक खर्च करेगी.

मणिपुर के एक वरिष्ठ अधिकारी ने अपना नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर बीबीसी को बताया कि वे अब 'यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं कि लोग अपने पुराने घरों में लौटने में सुरक्षित महसूस करें.'
यह कितना संभव होगा और यह प्रक्रिया कितनी सफल होगी?
इसका जवाब सरकार की क्षमता पर निर्भर करेगा कि वे लोगों में, ख़ास तौर पर लौटने का विकल्प चुनने वालों में किस हद तक विश्वास पैदा कर पाएगी.
मैंने बॉटनी की छात्रा हतनु से पूछा कि क्या उनके अब भी मैतेई समुदाय के दोस्त हैं और क्या वे उनसे बात करती हैं?
वे बताती हैं, "हाँ, मेरे कई मैतेई दोस्त हैं और हम कभी-कभी बात भी करते हैं. लेकिन कुछ लोगों ने मुझे ब्लॉक कर दिया है. ऐसे में मैं भी उनसे बात नहीं करना चाहती. लेकिन अगर वे मुझे मैसेज करके पूछें कि मैं कैसी हूँ, तो मैं ईमानदारी से उनसे बात कर सकती हूँ."
(आत्महत्या एक गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या है. अगर आप भी तनाव से गुज़र रहे हैं तो भारत सरकार की जीवन आस्था हेल्पलाइन 1800 233 3330 से मदद ले सकते हैं. आपको अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से भी बात करनी चाहिए.)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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