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दिल्ली दंगा: उमर ख़ालिद, शरजील इमाम समेत 10 लोगों को हाई कोर्ट ने ज़मानत क्यों नहीं दी?

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ANI दिल्ली दंगों की साज़िश के मामले में अभियुक्त हैं उमर ख़ालिद (फ़ाइल फ़ोटो)

मंगलवार 2 सितंबर को दिल्ली हाई कोर्ट की दो अलग-अलग बेंच ने साल 2020 में हुए दिल्ली दंगों की साज़िश के मामले में 10 अभियुक्तों की ज़मानत याचिकाओं पर फ़ैसले दिए.

दोनों बेंच ने इन सभी अभियुक्तों को ज़मानत देने से इनकार कर दिया.

जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शालिंदर कौर की बेंच ने नौ अभियुक्तों की ज़मानत याचिकाएँ ख़ारिज कीं.

जिनकी ज़मानत याचिकाएँ ख़ारिज हुईं, वे हैं: शरजील इमाम, उमर ख़ालिद, गुलफ़िशा फ़ातिमा, अतहर ख़ान, अब्दुल ख़ालिद सैफ़ी, मोहम्मद सलीम ख़ान, शिफ़ा-उर-रहमान, मीरान हैदर और शादाब अहमद.

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दूसरी ओर, तस्लीम अहमद की ज़मानत याचिका जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की बेंच ने ख़ारिज की.

जानते हैं यह मामला क्या है और किन आधार पर कोर्ट ने इन्हें ज़मानत देने से इनकार कर दिया.

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क्या है मामला? image Getty Images दिल्ली दंगों में 53 लोगों की मौत हुई थी, जिनमें अधिकतर मुसलमान थे.

फ़रवरी 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी. हिंसा में 53 लोगोंकी मौत हुई थी. इनमें ज़्यादातर मुसलमान थे. यही नहीं, इस हिंसा में सैकड़ों लोग घायल हुए थे. कई घरों और संपत्तियों को भी नुक़सान पहुँचा था.

पुलिस ने दंगों से जुड़े 758 मामले दर्ज किए थे. इनमें से एक मामला दिल्ली दंगों की साज़िश से जुड़ा है. यह केस 'एफ़आईआर नम्बर 59' के नाम से भी जाना जाता है.

इस मामले में उमर ख़ालिद, शरजील इमाम समेत कुल 20 अभियुक्त हैं. इनमें से 18 अभियुक्तों को गिरफ़्तार किया गया था. पुलिस के मुताबिक, दो अभियुक्त फ़रार हैं. इसमें 12 अभी जेल में हैं और छह लोगों को ज़मानत मिल चुकी है. ये 12 अभियुक्त साल 2020 से क़ैद में हैं.

पुलिस का आरोप है कि दिल्ली दंगों की साज़िश इन 20 लोगों ने रची थी. दंगों के कुछ महीने पहले देश भर में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो रहे थे.

पुलिस का कहना है कि प्रदर्शनों के दौरान इन लोगों ने दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़काने की साज़िश रची. पुलिस ने इन पर भारतीय दंड संहिता के साथ-साथ 'आतंकवाद' से जुड़े ग़ैर क़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम या यूएपीए के तहत भी केस दर्ज किए.

इस मामले में पुलिस ने पाँच चार्जशीट दायर किए हैं. पुलिस की चार्जशीट दायर होने के बाद अदालत मामले की सुनवाई करती है और सबूतों को प्रथम दृष्टया देख कर यह तय करती है कि किन धाराओं के तहत मुक़दमा चलना चाहिए. इसे 'चार्ज फ्रे़म' करना कहते हैं.

अगर अदालत को पर्याप्त सबूत नहीं दिखे तो अभियुक्तों को 'डिस्चार्ज' भी किया जा सकता है. फ़िलहाल इस मामले में पिछले एक साल से कड़कड़डूमा कोर्ट में चार्ज फ्रे़म करने पर ही बहस चल रही है.

ज़मानत की याचिकाएँ image Getty Images नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ देश भर में प्रदर्शन हुए थे

इन सभी अभियुक्तों की ज़मानत याचिकाएँ निचली अदालत में ख़ारिज हो गई थीं. इसके बाद इन्होंने हाई कोर्ट में ज़मानत की याचिकाएँ दायर कीं. उमर ख़ालिद की ज़मानत याचिका इससे पहले एक बार साल 2022 में भी दिल्ली हाई कोर्ट से ख़ारिज हो गई थी.

दिल्ली हाई कोर्ट के सामने इन सभी अभियुक्तों ने अपने-अपने तर्क रखे. हालाँकि, इनमें कुछ बातें एक जैसी थीं. सभी अभियुक्तों का कहना था कि मुक़दमा अब तक शुरू नहीं हुआ है. जिस गति से बहस चल रही है, इससे लगता है कि ये मुक़दमा काफ़ी लंबे समय तक चलेगा.

साथ ही, इन्होंने पुलिस के सबूतों पर भी सवाल खड़े किए. उन्होंने कहा कि उन पर 'आतंकवाद' का केस नहीं बनता है. उनका कहना था कि वे नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे लेकिन उसमें कुछ भी ग़ैर-कानूनी नहीं था.

अभियुक्तों ने गवाहों के बयानों की विश्वसनीयता और स्वीकार्यता पर भी सवाल उठाए. पुलिस द्वारा पेश किए गए ज़्यादातर गवाहों की पहचान सामने नहीं आई है.

वहीं, दूसरी ओर पुलिस का कहना था कि दिल्ली के दंगे एक सोची समझी साज़िश थी ताकि भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम किया जा सके. उन्होंने कहा कि इन सभी अभियुक्तों की इसमें अहम भूमिकाएँ थीं. इसलिए इनको ज़मानत देना सही नहीं होगा.

दिल्ली पुलिस का कहना था कि अभियुक्त व्हॉट्सएप ग्रुप और कुछ बैठकों का हिस्सा थे, जहाँ हिंसा भड़काने की साज़िश रची गई. साथ ही, अभियुक्तों ने चक्का जाम किया. हिंसा भड़काने में इन अभियुक्तों की अलग-अलग भूमिकाएँ थीं.

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यूएपीए का क़ानून image BBC/Seraj Ali गुलफ़िशा फ़ातिमा की तस्वीरें और जेल से लिखे हुए ख़त.

कोर्ट के फ़ैसले को समझने के लिए सबसे पहले ज़मानत से जुड़े कानून को समझते हैं. आम तौर पर किसी अपराध में बेल देने के लिए अदालत कुछ सिद्धांतों का पालन करती है.

आमतौर पर ये सिद्धांत हैं, क्या ज़मानत देने से पुलिस की तहक़ीक़ात पर असर पड़ेगा? क्या अभियुक्त के फ़रार होने की आशंका है और क्या ज़मानत मिलने के बाद अभियुक्त गवाहों को किसी तरह से डरा-धमका सकते हैं?

हालाँकि, यूएपीए में कुछ और शर्तें दी हुई हैं. जैसे, इस क़ानून में कहा गया है कि सबूत देखने पर अगर अदालत को प्रथम दृष्टया लगे कि अभियुक्त के ख़िलाफ़ आरोप के उचित आधार हैं तो फिर अदालत अभियुक्त को ज़मानत नहीं दे सकती.

इस प्रावधान के कारण 'आतंकवाद' के मामलों में ज़मानत मिलना मुश्किल हो जाता है.

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अलग-अलग फ़ैसले दिए हैं. जैसे, साल 2019 के एक फ़ैसले में कोर्ट ने कहा कि इन मामलों में ज़मानत के लिए कोर्ट अभियुक्त के ख़िलाफ़ पेश सबूतों की गहराई से विश्लेषण नहीं कर सकता. ज़मानत के लिए कोर्ट यह भी नहीं देख सकता कि पुलिस के सबूत स्वीकार्य हैं या नहीं.

इस फ़ैसले से यूएपीए मामलों में बेल मिलना और कठिन हो गया. हालाँकि, कोर्ट ने कुछ फ़ैसलों में यूएपीए मामलों में भी बेल दिए हैं.

जैसे साल 2021 के एक फ़ैसले में कोर्ट ने कहा कि यूएपीए के मामलों में भी अगर सुनवाई होने में देरी हो रही और अभियुक्त लंबे समय से जेल में है तो संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत उन्हें ज़मानत दी जा सकती है. यह अनुच्छेद व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है.

साथ ही, साल 2023 में यूएपीए के एक मामले में बेल देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत को यह ऊपरी तौर पर देखना होगा कि अभियुक्त के ख़िलाफ़ सबूत कितने मज़बूत हैं.

इन फ़ैसलों के आधार पर दिल्ली दंगों के मामलों में इन अभियुक्तों ने हाई कोर्ट में बेल की अपील की थी.

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हाई कोर्ट का फ़ैसला image ANI शरजील इमाम जनवरी 2020 में गिरफ़्तार हुए थे

दिल्ली हाई कोर्ट ने उमर ख़ालिद, शरजील इमाम और अन्य के मामले में कहा कि सुनवाई में देरी होना ज़मानत देने का एकमात्र कारण नहीं हो सकता. इसके साथ कोर्ट को अभियुक्तों के ख़िलाफ़ आरोपों और सबूतों को भी देखना होगा.

कोर्ट ने कहा कि इस मामले में बहुत से दस्तावेज़ और गवाहों के बयान हैं. इसलिए इस मुक़दमे की सुनवाई की गति धीरे होना सामान्य बात है.

कोर्ट ने कहा, "तेज़ी में मुक़दमा चलाना न तो अभियुक्तों के हित में होगा और न ही अभियोजन पक्ष के."

वहीं, तस्लीम अहमद के मामले में हाई कोर्ट की दूसरी बेंच ने कहा कि केस में देरी अभियुक्त के कारण हुई है. कोर्ट का कहना था कि उनके वकील ने कई बार मामले को अलग-अलग तारीख़ पर सुनने की माँग की थी.

सभी अभियुक्तों के ख़िलाफ़ सबूतों को देखते हुए हाई कोर्ट ने प्रथम दृष्टया उनके ख़िलाफ़ 'आतंकवाद' के केस को वैध बताया. साथ ही, कोर्ट ने कहा कि ज़मानत देने के लिए वे इस वक़्त गवाहों और सबूतों की सच्चाई पर नहीं जा सकते. ये मुक़दमा शुरू होने पर ही होगा.

कोर्ट ने कहा कि उमर ख़ालिद ने 24 फ़रवरी 2020 को लोगों को प्रदर्शन करने के लिए कहा था. उसी दिन अमेरिका के उस वक़्त के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत आने वाले थे. कोर्ट ने कहा, "इस बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता."

image BBC

शरजील इमाम के लिए पुलिस का कहना था कि उन्होंने भड़काऊ भाषण दिए थे. व्हाट्सऐप ग्रुप बनाए थे और सांप्रदायिक पर्चे बाँटे थे. साथ ही, उन्होंने उमर ख़ालिद के साथ मिल कर दंगों की साज़िश रची थी.

पुलिस के मुताबिक ये दोनों, दंगों के पीछे के 'मास्टरमाइंड' थे. इन्होंने दंगों की साज़िश रची थी.

कोर्ट ने कहा कि सबूतों को देखने से प्रथम दृष्टया दंगों में उनकी भूमिका नज़र आती है. यही नहीं, उनके ख़िलाफ़ सबूतों को कमजोर नहीं बताया जा सकता.

इन दोनों ने कोर्ट से कहा था कि गवाहों के बयान से यह सिद्ध नहीं होता कि उन्होंने दंगा करवाया था. इस पर हाई कोर्ट ने कहा कि यह बात मुक़दमा चलने पर तय होगी.

गुलफ़िशा फ़ातिमा पर पुलिस का कहना था कि उन्होंने भी बाक़ी अभियुक्तों के साथ दंगों की साज़िश रची थी. लोगों को मिर्ची पाउडर, डंडे इत्यादि दिए थे. हालाँकि, गुलफ़िशा के वकील का कहना था कि उनसे कोई हथियार बरामद नहीं हुए और गवाहों के बयान भी विश्वसनीय नहीं है. हालाँकि, हाई कोर्ट ने उनके इस तर्क को स्वीकार नहीं किया.

वहीं, दो अभियुक्तों, शिफ़ा-उर-रहमान और मीरान हैदर के लिए कोर्ट ने कहा कि यह आशंका है कि इन्होंने दंगा भड़काने के लिए पैसे जुटाए थे.

अतहर ख़ान और अब्दुल ख़ालिद सैफ़ी समेत चार और अभियुक्तों के लिए कोर्ट ने कहा कि इनकी अलग-अलग भूमिकाएँ थीं. इन्होंने अलग-अलग इलाक़ों में प्रदर्शन आयोजित किए. साथ ही, वे उन बैठकों का भी हिस्सा थे जिनमें दंगों की साज़िश रची गई.

क़ानूनी विशेषज्ञों की राय image Getty Images सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर ने एक रिपोर्ट में दिल्ली दंगों की साज़िश के मामले की आलोचना की थी

क़ानून के कई जानकारों ने इस फ़ैसले की आलोचना की है. संविधान के विशेषज्ञ गौतम भाटिया ने अपने एक लेख में लिखा है कि इस केस में गोपनीय गवाहों के अस्पष्ट बयान हैं. इनके आधार पर इन लोगों को सालों से जेल में रखा जा रहा है. उनका मानना था कि यह नाइंसाफ़ी है.

फ़ैसले का विश्लेषण करते हुए उन्होंने लिखा, "अगर ऐसे आधार पर लोगों को सालों तक जेल में रखा जा रहा है तो हम संविधान से अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार को ही हटा सकते हैं."

वकील प्रशांत भूषण ने एक्स पर टिप्पणी करते हुए इस फ़ैसले को "न्याय का मज़ाक" बताया.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर समेत पाँच लोगों ने साल 2022 में दिल्ली दंगों पर एक रिपोर्ट लिखी थी.

इस रिपोर्ट के मुताबिक़ दंगों की साज़िश से जुड़े मामले में 'आतंकवाद' की धाराओं का इस्तेमाल सही नहीं है. साथ ही, उनका कहना था कि इस मामले में पेश सबूतों में विरोधाभास है. इनके मनगढ़ंत और बनावटी होने की भी आशंका है.

आगे क्या?

हाई कोर्ट से ज़मानत ठुकराए जाने के बाद ये अभियुक्त सुप्रीम कोर्ट में इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील कर सकते हैं.

गुलफ़िशा फ़ातिमा के वकील सरीम नवेद ने समाचार एजेंसी 'एएनआई' को कहा कि वे इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे.

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