शुक्रवार को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का जर्मनी दौरा काफी संक्षिप्त रहा, लेकिन वो हर समय बर्लिन में ये स्पष्ट करने की कोशिश करते रहे कि राष्ट्रपति पद छोड़ने से पहले वर्ल्ड स्टेज पर उनकी अभी भी बड़ी महत्वकांक्षा है. खासकर मध्य पूर्व और यूक्रेन में.
यूरोप की सुरक्षा बाइडन की विदेश नीति की आधारशिला रही है, लेकिन पूर्व राष्ट्रपति और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां इसके उलट है.
बाइडन की कोशिशों को देखते हुए उन्हें जर्मनी के राष्ट्रपति फ्रांक-वॉल्टर श्टाइनमायर ने देश के सर्वोच्च पुरस्कार 'द स्पेशल क्लास ऑफ़ द ग्रैंड क्रॉस' से सम्मानित किया.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए य80 साल (दूसरे विश्व युद्ध के दौरान) पहले की तरह ही यूरोप इस बार भी सैन्य सहायता और नेतृत्व के लिए अमेरिका की ओर देख रहा है.
बाइडन इस बात पर जोर दे रहे हैं कि अभी भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है. उन्होंने कहा कि "यूक्रेन में जब तक शांति कायम नहीं हो जाती हमें तब आगे बढ़ते रहना चाहिए. हमें अपना समर्थन बनाए रखना चाहिए."
वैसे बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि इस साल नवंबर में होने वाले अमेरिकी चुनाव में कौन जीतता है?
यूरोप, यूक्रेन की मदद के लिए अमेरिकी सैन्य सहायता पर निर्भर करता है. अमेरिका के बाद जर्मनी यूक्रेन की सबसे ज्यादा सहायता कर रहा है.
बाइडन के राष्ट्रपति पद से हटने के बाद अमेरिका की ओर से ये मदद ख़त्म होने की आशंका जताई जा रही है.
ये भी पढ़ें-माना जा रहा है कि अगर चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार कमला हैरिस जीतती हैं तो अमेरिकी कांग्रेस विदेश नीति के मामले में चीन और ताइवान जैसे विषयों को प्राथमिकता देगा.
डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति रहने के दौरान (2016-20) उनके प्रशासन के पश्चिमी मुल्कों के सैन्य गठबंधन नैटो (नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन) के साथ संबंध अच्छे नहीं थे.
ट्रंप को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की प्रशंसा करने के लिए भी जाना जाता है. उन्होंने अभी तक सार्वजनिक तौर पर ये भी नहीं कहा है कि वो चाहते है कि यूक्रेन की जीत हो.
रूस के यूक्रेन पर हमला करने के बाद जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शूल्त्ज़ ने वादा करते हुए था कि हम अपने नाज़ी इतिहास से उबरकर अपनी सेना में बड़े पैमाने पर निवेश करेंगे. ऐसा इसलिए ताकि अपने सहयोगियों की रक्षा में पूर्ण तरीके से योगदान दे सकें.
इस हफ्ते ही जर्मनी के इंटेलिजेंस विभाग के चीफ़ ने चेतावनी देते हुए कहा था कि रूस अपनी सेना पर ऐसा ही निवेश करता रहा तो वो इस दशक के आख़िर तक नेटो पर हमले करने की स्थिति में आ जाएगा.
लेकिन जर्मनी में योजनाबद्ध तरीके से होने वाला सैन्य सुधार अफसरशाही के कारण आगे नहीं बढ़ पाया और सरकार ने भविष्य के लिए रक्षा बजट पर भी सहमति नहीं जताई है.
@Bundeskanzler जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शूल्त्ज़ को अपने ही देश में दवाब झेलना पड़ रहा हैजर्मनी में अगले साल होने वाले आम चुनाव से पहले को देश में ही चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही रूस के प्रति सहानुभूति रखते हैं.
में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर ने बाइडन और ओलाफ़ शूल्त्ज़ से मुलाक़ात की.
वहीं बीते दिनों नेटो में शामिल देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी के नेताओं ने ब्रसेल्स में ईरान और मध्य पूर्व को लेकर चर्चा की. अपने साझा बयान में यूक्रेन को मदद जारी रखने की बात दोहराई.
किसने क्या कहा?ब्रिटेन के प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर ने दावा किया कि रूस कमज़ोर हो रहा है और उसके बजट का 40 प्रतिशत हिस्सा युद्ध में जा रहा है. उन्होंने कहा कि उन्होंने और अन्य नेताओं ने इस बात पर चर्चा की है कि वो किस तरह की क्षमता, कौन से अतिरिक्त उपकरण और किन अतिरिक्त संसाधनों से यूक्रेन की मदद कर सकते हैं.
बीते सप्ताह यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने युद्ध को लेकर एक पेश किया था.
इसमें उन्होंने यूक्रेन को नेटो में शामिल होने का औपचारिक निमंत्रण देने का अनुरोध किया है. इसके अलावा ब्रिटेन और फ्रांस से मिली लंबी दूरी की मिसाइलों का इस्तेमाल करने के लिए खुली छूट देने की भी मांग की है. पश्चिमी मुल्कों ने उनकी इस मांग को अभी तक स्वीकार नहीं किया है.
बाइडन और नेटो सहयोगियों के आलोचक उन पर रूस के साथ तनाव बढ़ने के डर से बार-बार पीछे हटने का आरोप लगाते हैं.
यूक्रेन और रूस ने भी बाइडन के जर्मनी दौरे पर क़रीब से नज़र रखी होगी.
नेटो में शामिल देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी बार-बार यूक्रेन का साथ देने का आश्वासन दोहराते हैं.
लेकिन अमेरिकी के राष्ट्रपति जो बाइडन इस बार चुनावी रेस में नहीं है और जर्मन चांसलर अगले साल होने वाले आम चुनाव में हार सकते हैं. फ्रांस के भी राजनीतिक रूप से देश के भीतर कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.
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