मनोविकार ग्रस्त इस दौर में दुनिया के हरेक हिस्से में सत्ता में हैं और पूरी दुनिया ही युद्ध और दूसरी विभीषिकाओं से जूझ रही है, समाज में ध्रुवीकरण बढ़त जा रहा है। इन सबके बाद भी ऐसे नेता प्रजा के समर्थन से सत्ता तक पहुँच रहे हैं, यह निश्चित तौर पर भविष्य के लिए एक खतरनाक संकेत है। यूरोपियन जर्नल ऑफ पोलिटिकल रिसर्च में यूनिवर्सिटी ऑफ एम्स्टर्डम के मनोवैज्ञानिकों और समाज वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार मनोविकास ग्रस्त राजनेता समाज की समरसता बर्बाद का देते हैं और सामाजिक ध्रुवीकरण को खूब बढ़ा देते हैं – यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसी फुट डालो और राज करो वाली राजनीति। इस अध्ययन के लिए वर्ष 2019 से 2014 के बीच भारत समेत 40 विभिन्न देशों के चुनावों और नरेंद्र मोदी समेत 90 नेताओं के भाषणों और आचरणों का गहन अध्ययन किया गया है। इन नेताओं में नरेंद्र मोदी के अतिरिक्त डोनाल्ड ट्रम्प, जैर बोल्सेनारो, एम्मानुएल मैक्रो, मरीन लापें, एंजेला मारकेल, थेरेसा मे, जेरेमी कोरबीं, बोरिस जॉनसन, विक्टर ऑरबन, सिलवीओ बेरलूसकोनी, शीनजों अबे, रेकेप तेईप एरदोगन, मार्क रुटे और गीरट विलडर्स जैसे नेता शामिल हैं।
इस अध्ययन के अनुसार दुनिया में अहंकारी, आत्ममुग्ध, मनोरोगी और कपटी नेताओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है और इसके साथ ही सामाजिक ध्रुवीकरण भी पहले से अधिक खतनाक स्तर पर पहुँच रहा है। ऐसे नेता अपने समर्थकों के बीच समाज के एक वर्ग और विपक्ष के प्रति लगातार हिंसक और वैमनस्व वाली भाषा का प्रयोग कर ही अपने आप को महान दिखाते हैं| समर्थक अपने नेताओं को ही सही मानकर सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हैं। मतदाता वैचारिक तौर पर ऐसे कपटी और मनोरोगी नेताओं के नजदीक होते हैं और इन्हें ही जीत कर सत्ता में पहुंचा रहे हैं। इससे समाज में वैमनस्व लगातार बढ़ता जा रहा है, पर सत्ता में बैठे नेताओं को अगले चुनावों में जीत का यही एकलौता रास्ता पता है| ऐसे नेताओं के कारण समाज में जातिगत और नसली हिंसा लागातार बढ़ती जा रही है।
अहंकारी और मनोरोगी नेता एक रणनीति, बेईमानी, जोड़-तोड़, विपक्ष का चरित्र हनन, कुप्रचार और सामाजिक ताना-बाना को रौंदते हुए सत्ता तक पहुंचते हैं। यही कपटी नेताओं का चारित्रिक गुण है, राजनैतिक विशेषता है और ऐसे नेताओं का अपना अजेंडा होता है जिसे वे सत्ता में आकर पूरा करते हैं। ऐसे नेताओं के समर्थक अधिक संख्या में, उग्र और हिंसक होते है और ऐसे नेता जैसे ही सत्ता में पहुंचते हैं अपनी हिंसक भाषा और व्यवहार से जनता के बीच पहले से अधिक हिंसा बढ़ाते हैं आए सामाजिक ध्रुवीकरण भी। यही इन नेताओं का तुष्टीकरण है और अजेंडा भी| समर्थक अपने नेताओं को सही मानते हैं और उन्हीं का शिद्दत के साथ अनुसरण करते हैं| ऐसे समर्थक विपक्षी और लिबरल नेताओं तथ्य से परिपूर्ण बातों पर नहीं बल्कि अपने नेताओं के अनर्गल प्रलाप पर भरोसा करते हैं। हमारे अपने राजनेता ही हमें अधिक उग्र, असहिष्णु और हिंसक बना रहे हैं और हम आँखें बंद कर उनका समर्थन कर रहे हैं। एक अजीब तथ्य यह भी है कि राजनैतिक और आर्थिक अस्थिरता के दौर में समाज चरम कट्टरपंथी और भाषाई बाहुबली नेताओं पर अधिक भरोसा करने लगता है। यह इन मनोरोगी और कुटिल राजनेताओं को भी पता है, तभी सत्ता में आने से पहले ऐसे राजनेता सामाजिक अस्थिरता बढ़ाने में लिप्त रहते है और अपने समर्थकों के बीच यह संदेश पहुंचाने में व्यस्त रहते हैं कि सत्ता का विकल्प केवल कट्टरपंथी नेता ही हैं।
यदि देश का यही हाल रहा और सत्ता निरंकुश ही रही तो निश्चित तौर पर आने वाले वर्षों में देश की पूरी आबादी मानसिक रोगों की चपेट में होगी। देश की सत्ता जिन हाथों में है, वे सभी मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं। सत्ता का आधार विपक्ष, विकास, इतिहास और व्यवस्था पर लगातार बोला जाने वाला धाराप्रवाह झूठ है। इसमें से अधिकतर झूठ ऐसे होते हैं, जिनकी तालियों और नारों से परे कोई उपयोगिता नहीं होती, पर झूठ उगलने की ऐसी लत है कि संसद से लेकर चुनावों तक झूठ ही झूठ बिखरा पड़ा है| बचपन, शिक्षा, परिवार, कामकाज – सबमें केवल झूठ| मनोवैज्ञानिक मानते है कि लगातार जाने-अनजाने झूठ बोलना महज झूठ नहीं है बल्कि एक गंभीर मानसिक रोग है| जब झूठ बोलने की ऐसी लत लगी हो जिसमें सच खोजना भी कठिन हो तब उसे पैथोलोजिकल लाइंग कहा जाता है और हमारे सत्ता के शीर्ष पर बैठे आकाओं में यही लक्षण हैं।
मानसिक दीवालिया की सबसे बड़ी पहचान है कि वह अपने आपको सर्वज्ञानी समझता है, हरेक विषय का विशेषज्ञ समझता है| सांख्यिकी विशेषज्ञों से अधिक ज्ञानी, अर्थशास्त्रियों से अधिक ज्ञानी, वैज्ञानिकों से अधिक जानकार, सेना के प्रमुखों से बड़े रक्षा विशेषज्ञ, पर्यावरणविदों से बड़ा और पूरे देश से भी बड़ा समझने वाला एक मानसिक दीवालिया है जो अपने आप को स्वयंभू मसीहा मानता है| मसीहा तो हमें भी मानना पड़ेगा क्योंकि इतने के बाद भी जनता विश्वास कर रही है और उसे भी विश्वास है कि गद्दी तो उसी की है| एक सामान्य आदमी जितने झूठ जिन्दगी भर में बोल पाता होगा, उतने झूठ तो स्वयंभू मसीहा एक दिन में ही बोल जाता है| दरअसल जब वह बोलना शुरू करता है तब पूरे भाषण में से सच को खोजना पड़ता है, जैसे बादलों के बीच से राडार वायुयान को खोजता है या फिर नहीं खोज पाता| वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों को भी हैरानी होती होगी कि झूठ बोलने की कोई सीमा है भी या नहीं|
मानसिक दीवालिया की पूरी एक फ़ौज है| इस फ़ौज के पास भी कोई काम नहीं है सिवाय इसके झूठ को और आगे फैलाने का| चंद्रयान, मंगल्याण और आदित्य की कोई पहेली यदि ईसरो के वैज्ञानिक नहीं बूझ पाएंगे तो हमारे स्वयंभू इस पहेली को चुटकियों में हल करने की क्षमता रखते है| अगली बार तक तो समस्या से पहले ही हल निकल आएगा, आखिर इंटायर पोलिटिकल साइंस जैसे विषय के दुनियाभर में अकेले छात्र जो ठहरे| नेहरु खानदान को जो अपने बारे में जो जानकारी नहीं है, वह इनके भाषणों से प्रचारित की जाती है| दरअसल, कभी-कभी तो महसूस होता है कि नेहरु खानदान को अपना इतिहास इसी मानसिक दीवालिया से लिखवाना चाहिए| ये महान वैज्ञानिक भी हैं| शंकर जी को भले ही न पता हो कि गणेश जी प्लास्टिक सर्जरी की देन हैं पर इन्हें यह भी खबर है| डीएनए के बारे में तो ये शक्ल देख कर ही बता देते हैं कि खराब है या अच्छा| जब कोई नेता कोई और दल छोड़कर इनकी शरण में आ जाता है तब ये अपनी रहस्यमयी शक्तियों से उसके खराब डीएनए को अच्छा भी कर देते हैं| यही नहीं, स्वयंभू मसीह तो अपने दिव्य चक्षु से कपड़े देख कर आदमी को पहचान लेते हैं|
झूठ, फरेब और बंटवारा करने के बाद शासन कैसे चलाना है, यह इनसे सीखा जा सकता है| देश की जनता महान है, झूठ सहने की क्षमता भी अदभुत है| झूठे गढ़े गए नारों पर जयकारा लगाने लगी है| अपने और देश का विकास इसी झूठ में खोजने लगी है| पड़ोस में मरता किसान नहीं दिखाई देता पर किसानों का स्वयंभू मसीहा दिखता है| अपने बेरोजगार बच्चे नहीं दिखते पर मनगढ़ंत रोजगार के आंकड़े दिखते हैं| नोटबंदी की मार नहीं दिखती पर इसके झूठे फायदे दिखते हैं| जनता को ही बदलना होगा, नहीं तो मानसिक विकलांग ही हमपर शासन करेंगे और अगले कुछ वर्षों में हम सब ऐसे ही हो जायेंगे|
सत्ता के समर्थन में देश की आधी से अधिक आबादी है| समर्थक होना मनोविज्ञान के सन्दर्भ में सामान्य प्रक्रिया है, पर अंध-भक्त होना एक मनोवैज्ञानिक विकार है| इससे देश की आधी से अधिक आबादी जूझ रही है, और यह इनके व्यवहार से भी स्पष्ट होता है| देश की सामान्य अंध-भक्त आबादी पहले से अधिक उग्र और हिंसक हो चली है| व्यवहार में हिंसा के साथ ही भाषा भी लगातार हिंसक होती जा रही है| भाषा के साथ ही भीड़ की हिंसा मनोविज्ञान के तौर पर सामान्य नहीं है| सामान्य मस्तिष्क किसी भी विषय पर खुद विश्लेषण कर किसी भी सन्दर्भ का खुद निष्कर्ष निकालता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है| आज के दौर में देश की आधे से अधिक आबादी के मस्तिष्क ने विश्लेषण करना बंद कर दिया है, और यह आबादी सही मायने में मनुष्य नहीं बल्कि भेंड़ जैसी हो गयी है जिसके बारे में विख्यात है कि झुण्ड का एक सदस्य जिस दिशा में चलना शुरू करता है, बाकी सभी सदस्य उसी दिशा में जाने लगते हैं|
जो सत्ता के काम का, नीतियों का और इसके नेताओं के वक्तव्यों और फरेब का विश्लेषण करने लायक बचे हैं – ऐसे लोग अलग मानसिक यातनाएं झेल रहे हैं| ऐसे लोग जो सोच रहे हैं वे कहीं लिख नहीं सकते, किसी से बोल नहीं सकते, उसपर व्यंग्य नहीं कर सकते, उसपर गाने नहीं बना सकते और इसे किसी कार्टून या चित्र में ढाल नहीं सकते| ऐसी आबादी घने धुंध से घिर गयी है और कभी भी ऑन-लाइन से लेकर शारीरिक हमले का शिकार हो सकती है, मारी जा सकती है, या फिर घर को बुलडोजर से ढहाया जा सकता है| अभिव्यक्ति पर तमाम पाबंदियों के साथ मारे जाने का डर हम सभी को मानसिक यातनाएं दे रहा है| जरा सोचिये एक लेखक को हरेक शब्द लिखते हुए यह डर सताए कि इसका क्या असर होगा, किसी स्टैंड-अप कॉमेडियन को हरेक शब्द बोलने से पहले सोचना पड़े कि इसके बाद कहीं जेल तो नहीं होगी, फिल्म बनाते समय यह सोचना पड़े कि किसी गाने में नायिका ने भगवा तो नहीं पहना है, फिल्म का पोस्टर रिलीज़ करने के पहले सोचना पड़े कि कितने शहरों में मुकदमा झेलना पड़ेगा – जाहिर है ऐसे माहौल में आपका दम घुटने लगेगा और हरेक तरह की अभिव्यक्ति जकड जायेगी| यही आज देश का माहौल है| हम जो सोच रहे हैं उसे सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं| इस घुटन में सबकी अभिव्यक्ति मर रही है, दम तोड़ रही है और हमें मानसिक रोगों से घेर रही है|
ऐसे झूठे, कपटी और हिंसक नेताओं की जमात पूरी दुनिया पर राज करने लगी है और यह प्रजातन्त्र के लिए सबसे बाद खतरा है| जब राजनेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं जनता पर हावी होने लगती हैं, उनकी सोच को विषाक्त और हिंसक बना देती हैं तब सामाजिक समरसता खत्म हो जाती है और प्रजातन्त्र मरने लगता है|
संदर्भ:
Alessandro Nai et al, Ripping the public apart? Politicians' dark personality and affective polarization, European Journal of Political Research (2025).
You may also like
छत्तीसगढ़ को मिली नई रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना: राज्य के विकास के लिए एक मील का पत्थर
महिलाओं के संबंध बनाने की प्रवृत्ति: शोध से खुलासा
उत्तर प्रदेश में नया नोएडा: शहरीकरण के लिए बड़े कदम की शुरुआत
निशिकांत दुबे ने पूर्व चुनाव आयुक्त पर लगाए आरोप, कहा- झारखंड में घुसपैठियों को आपके कार्यकाल में वोटर बनाया गया
हरियाणा सरकार का बड़ा ऐलान, अब बच्चे बनेंगे ओलंपिक चैम्पियन, जानिए मिशन 2036 की पूरी योजना