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क्यों PDA बनाम PDA तक आई, यूपी की लड़ाई? सपा के सामने बीजेपी ने खेला पिछड़ा-दलित-अगड़ा कार्ड

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दीप सिंह, लखनऊ: यूपी में विधानसभा उपचुनाव के लिए नामांकन शुरू हो चुका है। नामांकन से ठीक एक दिन पहले सभी दलों के प्रत्याशियों की लिस्ट आने से अब चुनावी लड़ाई की तस्वीर भी साफ हो गई है। बात यदि N.D.A. और I.N.D.I.A. की हो तो यूपी में लड़ाई सीधे तौर पर भाजपा और सपा के बीच ही है। कांग्रेस के चुनाव मैदान से हटने के बाद सभी नौ सीटों पर सपा ने प्रत्याशी उतार दिए हैं। वहीं, भाजपा ने आठ सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं और एक सीट आरएलडी को दी है। प्रत्याशियों के सामने आने के बाद अब एक बार फिर PDA की ही चर्चा है। कहा जा रहा है कि सपा के PDA(पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) का जवाब भाजपा ने PDA (पिछड़ा-दलित-अगड़ा) से दिया है। किसका PDA किस पर भारी पड़ेगा, यह तो चुनाव नतीजे ही बताएंगे। फिलहाल सवाल यह उठ रहा है कि आखिर यह लड़ाई PDA बनाम PDA तक कैसे आई? भाजपा ने अपना PDA फॉर्म्युला क्यों और कैसे तैयार किया और इसके पीछे भाजपा की सोच और उम्मीद क्या रही है। प्रत्याशियों के जरिए दिया संदेशउपचुनाव में PDA बनाम PDA की तस्वीर सपा और भाजपा के प्रत्याशियों से साफ हो जाती है। सपा ने कुल नौ प्रत्याशी उतारे हैं। इनमें सबसे ज्यादा चार पर अल्पसंख्यकों को टिकट दिया है। तीन ओबीसी और दो दलित प्रत्याशियों को टिकट दिया है। वहीं, भाजपा ने आठ प्रत्याशियों में सबसे ज्यादा चार ओबीसी को टिकट दिया है। इसके अलावा तीन सवर्ण और एक दलित को प्रत्याशी बनाया है। सहयोगी पार्टी आरएलडी ने ओबीसी को मैदान में उतारा है। इस तरह देखा जाए तो ओबीसी और दलित पर सपा और भाजपा दोनों ने दांव लगाया है। इसके अलावा सपा ने अल्पसंख्यकों पर दांव लगाया है तो भाजपा ने उसकी जगह सवर्णों यानी अगड़ों को टिकट दिया है। कैसे यहां तक पहुंची लड़ाईदरअसल, PDA को समझने के लिए वोटबैंक की राजनीति को जानना जरूरी होगा। एक समय था, जब यूपी में ओबीसी सपा का परंपरागत वोटबैंक हुआ करता था और दलित बसपा का। भाजपा ने गैर यादवों को अपनी तरफ करके सपा के ओबीसी वोटबैंक में सेंध लगाई। इसी तरह गैर जाटवों को अपनी तरफ करके बसपा के वोटबैंक में सेंध लगाई। इसका लाभ भी भाजपा को मिला। इसकी वापसी के लिए पिछले लोकसभा चुनाव में I.N.D.I.A. ने PDA का नारा बुलंद किया। पिछड़े, दलितों और अल्पसंख्यकों को अपनी ओर करने के लिए दिए गए इस नारे के साथ ही सपा ने संविधान और जातीय जनगणना जैसे मुद्दों को उठाया। इसका लाभ I.N.D.I.A. को मिला। दोनों ने 80 में से 43 सीटें जीतीं और भाजपा को भारी नुकसान हुआ। इस तरह I.N.D.I.A. का PDA फॉर्म्युला कारगर रहा। तब से भाजपा इस PDA फॉर्म्युले की काट खोज रही थी। यही वजह है कि लोकसभा चुनाव के ठीक बाद हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कुछ प्रयोग किए। भाजपा को लगा कि जाट वोटर उससे कुछ नाराज हैं और अल्पसंख्यक I.N.D.I.A. का वोटबैंक है। ऐसे में उसने सबसे ज्यादा पिछड़ों पर फोकस किया और दलितों के साथ ही सवर्णों को साधा। वहां की बड़ी जीत के बाद अब भाजपा यूपी में ओबीसी, दलित और अगड़े प्रत्याशी उतार कर PDA की काट PDA करने की कोशिश की है। किसको कौन से समीकरण मुफीद?इस लड़ाई को PDA बनाम PDA बनाने के पीछे जातियों का सीधा गणित है। दरअसल एक अनुमान के मुताबिक यूपी में कुल वोटरों में सबसे ज्यादा करीब 42% ओबीसी हैं। दलित वोटर 21% हैं। वहीं मुस्लिम वोटर करीब 19% है। ऐसे में सपा ने दलित ओबीसी के साथ अल्पसंख्यकों को अपने पाले में कर PDA फॉर्म्युला तैयार किया है। वहीं भाजपा को मालूम है कि मुस्लिम वोटर उसके साथ आसानी से आ नहीं सकते। ऐसे में उसने अल्पसंख्यकों की जगह अगड़ों को तवज्जो दी है। उनकी आबादी भी करीब 18 फीसदी है। इस तरह दलित और ओबीसी दोनों के PDA का हिस्सा हैं। वहीं, एक के PDA में अल्पसंख्यक हैं तो दूसरे के में सवर्ण यानि अगड़े वोटर।
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