नई दिल्ली: सियाचिन में भारतीय सेना की एक पेट्रोलिंग पार्टी एवलांच (बर्फीले तूफान) में फंस गई जिसमें एक सैनिक और दो अग्निवीर वीरगति को प्राप्त हुए। 7 सितंबर यानी रविवार की शाम पर सेंट्रल ग्लेशियर में सेना की पेट्रोलिंग पार्टी एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट की तरफ वापस जा रही थी तभी वह बर्फीले तूफान में फंस गई। उन्हें बचाने के लिए तुरंत रेस्क्यू ऑपरेशन लॉन्च किया गया और उन्हें जरूरी मेडिकल हेल्प दी गई लेकिन उनकी जान नहीं बचाई जा सकी। आज यानी मंगलवार सुबह उन्हें मृत घोषित किया गया। भारतीय सेना की 14 वीं कोर ने बताया कि इस बर्फीले तूफान में सिपाही मोहित कुमार, अग्निवीर नीरज कुमार चौधरी और अग्निवीर दाभी राकेश देवा भाई वीरगति को प्राप्त हुए।
सियाचिन ग्लेशियर दुनिया का सबसे ऊंचा युदुध स्थल है और यहां मौसम ही जवानों का दुश्मन है। बर्फीले तूफान यहां सैनिकों की जान लेते रहते हैं। 1984 से अब तक सियाचिन ग्लेशियर में मौसम की मार की वजह से दोनों देशों के 2000 से ज्यादा सैनिक अपनी जान गंवा चुके हैं। सियाचिन में अपनी ड्यूटी पूरी कर आने वाले किसी भी जवान या अधिकारी से बात करने पर वह बताते हैं कि सिर्फ वहां तैनाती के दौरान ही शरीर पर नेगेटिव असर नहीं पड़ता बल्कि इसका असर जीवन भर दिखता है। एक अधिकारी ने बताया कि वहां से लौटकर अचानक से लगता है कि भूलने की बीमारी सी हो गई है। क्योंकि सियाचिन ग्लेशियर शरीर पर ही नहीं दिमाग पर भी असर करता है।
सियाचिन से सैनिकों को क्यों नहीं हटाया जाता? भारत और पाकिस्तान ने वैसे कई बार सियाचिन ग्लेशियर से सैनिकों को हटाने की दिशा में बातचीत की है। जून 1989 में बातचीत एक तरह से फाइनल स्टेज तक पहुंच गई थी। लेकिन फिर बात आगे नहीं बढ़ी। कई बार डिप्लोमेटिक स्तर पर इसे बढ़ाने की कोशिश तो हुई है लेकिन यथास्थिति बदल नहीं पाई। 1984 में जब पाकिस्तान ने सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा करने की कोशिश की तो उसके इरादों की खबर मिलते ही भारतीय सेना सक्रिय हो गई थी। पाकिस्तानी सैनिक वहां पहुंचकर कब्जा करते, इससे पहले ही 13 अप्रैल 1984 को भारतीय सैनिक ऑपरेशन मेघदूत के तहत वहां पहुंच गए। 13 अप्रैल 1984 को बिलाफोंड ला में तिरंगा फहरा दिया गया। चार दिन के भीतर यानी 17 अप्रैल तक सभी अहम जगहों पर भारतीय सैनिक काबिज हो चुके थे। तब से अब तक वहां सैनिकों की तैनाती बनी हुई है। 1984 में शुरु हुआ यह सिलसिला अंतहीन युद्ध की शुरुआत बन गया।
सियाचिन ग्लेशियर दुनिया का सबसे ऊंचा युदुध स्थल है और यहां मौसम ही जवानों का दुश्मन है। बर्फीले तूफान यहां सैनिकों की जान लेते रहते हैं। 1984 से अब तक सियाचिन ग्लेशियर में मौसम की मार की वजह से दोनों देशों के 2000 से ज्यादा सैनिक अपनी जान गंवा चुके हैं। सियाचिन में अपनी ड्यूटी पूरी कर आने वाले किसी भी जवान या अधिकारी से बात करने पर वह बताते हैं कि सिर्फ वहां तैनाती के दौरान ही शरीर पर नेगेटिव असर नहीं पड़ता बल्कि इसका असर जीवन भर दिखता है। एक अधिकारी ने बताया कि वहां से लौटकर अचानक से लगता है कि भूलने की बीमारी सी हो गई है। क्योंकि सियाचिन ग्लेशियर शरीर पर ही नहीं दिमाग पर भी असर करता है।
सियाचिन से सैनिकों को क्यों नहीं हटाया जाता? भारत और पाकिस्तान ने वैसे कई बार सियाचिन ग्लेशियर से सैनिकों को हटाने की दिशा में बातचीत की है। जून 1989 में बातचीत एक तरह से फाइनल स्टेज तक पहुंच गई थी। लेकिन फिर बात आगे नहीं बढ़ी। कई बार डिप्लोमेटिक स्तर पर इसे बढ़ाने की कोशिश तो हुई है लेकिन यथास्थिति बदल नहीं पाई। 1984 में जब पाकिस्तान ने सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा करने की कोशिश की तो उसके इरादों की खबर मिलते ही भारतीय सेना सक्रिय हो गई थी। पाकिस्तानी सैनिक वहां पहुंचकर कब्जा करते, इससे पहले ही 13 अप्रैल 1984 को भारतीय सैनिक ऑपरेशन मेघदूत के तहत वहां पहुंच गए। 13 अप्रैल 1984 को बिलाफोंड ला में तिरंगा फहरा दिया गया। चार दिन के भीतर यानी 17 अप्रैल तक सभी अहम जगहों पर भारतीय सैनिक काबिज हो चुके थे। तब से अब तक वहां सैनिकों की तैनाती बनी हुई है। 1984 में शुरु हुआ यह सिलसिला अंतहीन युद्ध की शुरुआत बन गया।
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